विविध उपन्यास >> हीरो-एक ब्लू प्रिंट हीरो-एक ब्लू प्रिंटमहाश्वेता देवी
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किसी भी जन-बहुल शहर में, किसी को भी, कहीं भी गुम हो जाने की कतई मनाही नहीं है। अगर वह मर भी जाए तो लाश, बिना शिनाख्त के पड़ी रहेगी...
प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश
....तस्वीर ? कोई तस्वीर नहीं है। पटना के सेवा अनाथ आश्रम का जो लड़का, आदिवासी छात्रवृत्ति लेकर, धनबाद कॉलेज में पढ़ने गया था, उस वक्त की एक ग्रुप तस्वीर कहीं जरूर रखी है ! लेकिन उस तस्वीर मे, आज के हीरो को पहचानना नामुमकिन है।
उसका तो फिंगर-प्रिंट तक नहीं मेल खाता। लालपुर पुलिस ने उसकी उंगलियों की छाप ली जरूर थी, लेकिन जौरवाली में हरिजन बस्ती में लगी आग बुझाते हुए, उसकी हथेली ही जल गई। हाथ में पैसा आने के बाद, बाएं और दाहिने हाथ की प्लास्टिक सर्जरी कराई गई।
जी नहीं, वह अंगूठा छाप नहीं था। किसी भी जन-बहुल शहर में, किसी को भी, कहीं भी गुम हो जाने की कतई मनाही नहीं है। अगर वह मर भी जाए तो लाश, बिना शिनाख्त के ही पड़ी रहेगी। इतने साल बाद, यह सब सोचने बैठो, तो कहीं से असहाय होने का अहसास तो होता ही है...
उसका तो फिंगर-प्रिंट तक नहीं मेल खाता। लालपुर पुलिस ने उसकी उंगलियों की छाप ली जरूर थी, लेकिन जौरवाली में हरिजन बस्ती में लगी आग बुझाते हुए, उसकी हथेली ही जल गई। हाथ में पैसा आने के बाद, बाएं और दाहिने हाथ की प्लास्टिक सर्जरी कराई गई।
जी नहीं, वह अंगूठा छाप नहीं था। किसी भी जन-बहुल शहर में, किसी को भी, कहीं भी गुम हो जाने की कतई मनाही नहीं है। अगर वह मर भी जाए तो लाश, बिना शिनाख्त के ही पड़ी रहेगी। इतने साल बाद, यह सब सोचने बैठो, तो कहीं से असहाय होने का अहसास तो होता ही है...
हीरो-एक ब्लू प्रिंट
एक
हीरो तब तक नहीं जानता था कि उसके कत्ल के ब्लू प्रिंट तैयार हो चुका है और सभी ब्लू-प्रिंट कागज पर नहीं लिखे जाते। इंसान के दिमाग़ में भी ब्लू-प्रिंट तैयार होता है। ऐक्शन-ऑपरेशन के लिए यही काफी है, यह बात हीरो, चूँकि नहीं जानता था, इसलिए वह निश्चिंत था। हीरो, जो किराये का टट्टू और समाज का दुश्मन था, यह भूल गया था कि निश्चिंत रहना, कितनी बड़ी भूल है। वह इस टाउन में हाज़िर हो गया था, जो ‘टाउन’ होने का दावा करने के बावजूद, अभी भी स्वभाव-चरित्र-चेहरे से कहीं गांव ही रह गया था या फिर न गांव-न शहर, ऐसी स्थिति में फंसा रह गया था।
लेकिन, हां, वह शहर काफी फैलता जा रहा था, दूर-दूर तक विस्तार कर रहा था। इस बड़े होने या फैलते जाने के पीछे कोई योजना नहीं थी, यह तो सिर्फ माठ-घाट, बस्ती-दख़ल करके बड़ा होना था, जो इस समय का नियम है। बंगाल-बिहारी सीमांत पर, बहुत-सी जगहें, चूंकि बस-सड़क के संगम पर स्थित थीं, इसलिए ऐक्शन करके, कई-कई राज्यों में आराम से आकर रहा जा सकता है। यह जगह, भविष्य में, काफी बड़ी हो जाएगी, खूब फलने-फूलने लगेगी, इसका अंदज़ा लगाकर ही, वह रेवती को यहां ले आया था।
रेवती को वह एक बहुत बड़े ऐक्शन के बाद, यहां लाया था। डैनी (यह असली नाम नहीं था। सुविधा के लिए किसी हिंदी फ़िल्म के किसी खलनायक के नाम पर रख लिया गया था) एक राष्ट्रीय-मार्ग से जा रहा था। उन दिनों भी हीरो, आधिकारिक तौर पर डैनी का दाहिना हाथ था, लेकिन उन्हीं दिनों ही उसने दल बदल लिया। बेहद अफसोस की बात है, डैनी को इसकी जानकारी नहीं दी गई। डैनी क्या करने वाला है, हीरो जानता था, डैनी को इसकी ख़बर नहीं थी।
उन दिनों हीरो का जो कारोबार ‘फ्रंट’ में था, उसने ‘मोटेल’ नाम दिया था। ‘हीरोज़ मोटेल’’ ! नीचे गैरेज, ऊपर घर, घर से जुड़ा बाथरूम भी था, मगर वहाँ पानी नदारद ! नीचे से पानी भर कर लाना पड़ता था। बगल मे ही ‘हीरो का ढाबा’! इस सड़क पर यह मोटेल और ढाबा, काफी सर्विस देता था। बहुत ज्यादा जरूरत के अलावा, डैनी यहाँ कभी नहीं आया।
मोटेल तक पहुँचने से पहले ही, हीरो ने उसे रोक लिया। सड़क पर लकड़ी का एक कुंदा, आड़े-तिरछे पड़ा था। यह सड़क, चुराए हुए काठ लाने-ले जाने के लिए भी जानी जाती थी। हीरो उस सड़क पर हाथ उठाए खड़ा था।
झुंझलाए हुए डैनी ने गाड़ी रोकी।
हीरो आगे बढ़ आया।
‘‘तुम ?’’
‘‘सॉरी, बॉस ! आपका प्लान चौपट हो गया।’’
डैनी डैश-बोर्ड से रिवाल्वर नहीं निकल पाया। वह मुंह फेरे बैठा था।
हीरो ने उसे काफी करीब से गोली मारी। एक के बाद एक ! लगातार ! उसकी नीगाहों में डैनी का चेहरा अजनबी हो आया।
हीरो ने आवाज़ देकर कहा, ‘गाड़ी बगल में उतार दे और खाई की तरफ लुढ़का दे।’’
ऐन उसी वक्त, गाड़ी की पिछली सीट पर बैठी एक लड़की, फूट-फूट कर रो पड़ी। अगले ही पल, उसने दरवाज़ा खोलकर नीचे उतरने को कदम बढ़ाया। ‘‘रेवती ?’’
‘‘मुझे मत मारो।'
‘‘नीचे उतरो।’’
एक बैग, अपनी छाती से कसकर चिपटाए हुए, वह नीचे उतरी ! उस वक्त भी वह थर-थर कांप रही थी।
थोड़ा ठहरकर उसने कहा, ‘‘नामने बाबू का बैग है।’’
हीरो ने बैग उठा लिया।
‘‘भानू, गाड़ी लुढ़का दे ! झप् फिर खिसक लेना ! बाद में, एक बार मिल लेना।’’
अब वह रेवती से मुखातिब हुआ, ‘‘चलो, बैठो ! मोटर साइकिल पर बैठ जा।’’
‘‘’गिर जाऊंगी—’’
‘‘तुझे इस गाड़ी में भेज दूं ?’’
‘‘न्-न्-नहीं।’’
‘‘बस, आगे मत बोल ! जुबाम मत खोल।’’
जाते-जाते हीरो ने मन ही मन खुद को गाली दी। कमज़ोरी ! कमज़ोरी ! दिल का कच्चा ! औरत की जान नहीं ले सकता। उसके अंदर, जरूर कहीं कमजोरी है।
उसने सोचते-सोचते सिर हिलाया-डैनी नहीं जाता ! लेकिन हीरो को फंसाकर, खुद खिसक लिया। इसीलिए उसे जाना पड़ा।
>क्या, कहीं बेईमानी हो गई ?
उसके काम में भला बेईमानी कैसी ?
वेश्या की एक पुरुषगामिता, उसके पेशे के साथ मेल नहीं खाती। अब उन रूपकथाओं का ज़माना गुज़र गया, जब कोई औरत वेश्यावृत्ति में लाई भी गई हो, वह किसी हमदर्द पुरुष का स्थायी आश्रय पा लेती थी।
लेकिन सच में उसे स्थायी आश्रय मिलता हो या न मिलता हो, बंगला उपन्यासों में उसे ज़रूर मिल जाता था। वह जिस भी मर्द की रखैल होती थी। उसी के चरणों की दासी बनकर रह जाती थी। आजकल आश्रय का मामला सिर्फ विवाहित दंपतियों में ही सीमित रह गया है। वेश्याएँ जीविका के लिए पतितावृत्ति करती हैं। ऐसी औरतें भला दासी बनकर क्यों पड़ी रहें ?
जिसे भाड़े का टट्टू बनना पड़ा हो, वह हमेशा के लिए, विश्वसनीय कैसे बना रह सकता है ? वह खुद भी, जब, जिसे विश्वास देता है, वही शख्स उसे घातक के हाथों में सौंप देता है।
मोटेल पहुंचकर वह रेवती को ऊपर खींच ले गया। काठ की सीढ़ियों पर धप-धप आवाजें गूंज उठीं। वह उसे अंदरवाले कमरे में ले गया।
‘‘अब यहीं बंद रहो ! प्यास लगे, तो पानी पी लेना।’’
‘‘मुझे मारो मत।’’
‘‘चुप! बात मत करो ! चुप-चाप रहो।’’
वह नीचे उतर आया। आज वह मोटेल क्या बंद रखे ? न, शक पड़ जाएगा। भानु भी वापस आने वाला है ! वह ढाबे में जा बैठा !
‘‘खाएगा ?’’
‘‘ना, दूध-चाय एक गिलास !’’
दूध-चाय रखकर रवि ने कहा, ‘‘लगता है, बरखा होगी।’’
‘‘हो ही जाए ! गर्मी भी पड़ी है।’’
‘‘मटर-पनीर, तड़का और रोटी ?’’
‘‘बाद में !’’
भानू आधे घंटे बाद आया। हीरो जानता था कि वह इस लाइन में क्यों आया। लेकिन, भानू किसी शरीफ घराने का बेटा ! वह क्यों इस लाइन में आ पड़ा ? यह समय आखिर कैसा समय है ? सत्तर के दशक का यह कैसा उत्तराधिकार है ? वह किससे, क्या कहे ? इस भानु जैसे छोकरे का तो हिसाब-किताब ही और तरह का है। आजकल तो सभी कैरियर दादा हैं और राजनीति भी कैरियर ही है। असली चीज़ है—रुपया ! रुपये जहां, भानु जैसे लोग वहां।
रेडियो पर ‘छायागीत’ चल रहा था। भानु ने उसका वोल्यूम बढ़ा दिया और बैठ गया। ‘‘बरसात में हमसे मिले तुम, सजन....’ गीत।
भानू ने धीमी आवाज़ में सूचना दी, ‘‘डॉन, खल्लास हो गया।’’
‘‘गुड्डू! अब तू जा, यहाँ से वन-टू-थ्री हो जा ! चल, बाहर चल!’’
बाहर निकालकर हीरो ने उसे कुछेक नोट थमाए, ‘‘हजार है ! घर में दे देना और चुपके रहना। ख़बर न दूँ तो बाहर न निकलना ! घर में जस्ट खाना, भानू और मुहल्ला छोड़कर, निकल लेगा।’’
‘‘ख़बर ज़रूर देना, हीरो, वर्ना मर जाऊंगा’’
‘‘परिवार के साथ कितने दिन रहना मिलेगा, यह नहीं सोच सकता ?’’
‘‘सोच सकता हूँ।’’
‘‘तो जा, वही कर !’’
हीरो ने कई एक पोटियां और तड़का बांध लिया।
‘‘घर जाकर खाऊंगा।’’ उसने कहा रेवती भौहें सिकोड़े बैठी थी।
‘‘लो, खाओ ! बाथरूम जाना है, तो हो आओ।’’
‘‘मेरा क्या करोगे ?’’
‘‘कहीं जाना चाहती हो ? पहुंचा दूंगा।’’
‘‘कहा जाऊंगी ? मेरे मामा लोग जाने कभी, मुझे बेच गए थे। रहती तो थी....’’
‘‘रेड लाइट एरिया में ! चकले में।’’
‘‘एक बाबू हमें उठा लाया, बाद में बेच दिया। उसके बाद, यह बाबू....’’
‘‘कहां जा रहे थे दोनों ?’’
‘‘बताया नहीं। कहा, साथ चल ! औरत साथ हो, तो मुझे सहूलियत रहती है। कहा था, सिलिगुड़ी ले जाकर ब्याह करा देगा।’’
‘‘हां, पहले भी कराया था, बात में भी करा देता। यह डैनी लड़कियों का हमेशा ब्याह ही तो कराता था। तुमने उसका भरोसा किया था ?’’
‘‘भरोसा मैंने उसका किसी दिन भी नहीं किया। लेकिन मेरे हाथ में और कोई उपाय भी कहां था ? सत्पथ पर रहूंगी, मेहनत की खाऊंगी। बहुत दिनों से टेंट कानी थी। अब जाकर बढ़िया फल मिला !’’
‘‘तुम्हारी उम्र कितनी है ?’’
‘‘बाइस!’’
‘‘रुपए तो बैग में भर लाई हो।’’
‘‘बाबू ने ही रखने को दिया था।
‘‘कितने हैं ?’’
‘‘चार हजार और मेरे कुछ गहने।’’
‘‘देखता हूं, मेहनत का खाती हो या नहीं। डैनी के लिए दुःख हो रहा है ?’’
‘‘दुःख कैसा दुःख ? दुःख-सुख मुझे नहीं होता।’’
‘‘वाह ! बहुत खूब ! तुम्हारे बाबू के बैग में कितने हैं ?’’
‘‘देखा नहीं।’’
‘‘उसी आदमी के घर में ही तो रहती-सहती थी और कितने मज़े से कह रही हो—तुम्हें दुःख-सुख नहीं होता।’’
‘‘वह तो तुम्हारा भी बॉस था। उसे मारकर दुःख हो रहा है ?’’
‘‘उसने मुझे खत्म करने का इंतजाम किया था। अब या तो वह मरता या मैं। खैर, छोड़ो ! खाना है तो खा लो ! मैं तो खाता हूँ। मेरे पेट में चूहे कूद रहे हैं ! कसकर भूख लगी है।’’
‘‘तुम क्या इंसान हो ? खाने की क्यों सोचते हो ?’’
‘‘क्यों न सोचूँ ? खाने के लिए ही तो इतना सब कामकाज करता हूं। आज अगर मैं मर गया होता, तो डैनी बाबू खाना नहीं खाता ? तुम्हें नहीं खाना है, तो मत खाओ। आओ, सो जाओ। मैं दरवज्जे पर ताला मार दूंगा, सुबह खोल दूंगा। सुनो, खिड़की की राह भागने की कोशिश हरगिज मत करना। नीचे ही गैरेज है। वहां मेरे बंदे मौजूद हैं ! ये दोनों बैग भी मुझे पकड़ाना। मैं इन्हें ताले-चाबी में रख दूं, कल दे दूंगा। और हां, चींखना-चिल्लाना मत, यहाँ कोई सुनने वाला नहीं।’’
लेकिन, हां, वह शहर काफी फैलता जा रहा था, दूर-दूर तक विस्तार कर रहा था। इस बड़े होने या फैलते जाने के पीछे कोई योजना नहीं थी, यह तो सिर्फ माठ-घाट, बस्ती-दख़ल करके बड़ा होना था, जो इस समय का नियम है। बंगाल-बिहारी सीमांत पर, बहुत-सी जगहें, चूंकि बस-सड़क के संगम पर स्थित थीं, इसलिए ऐक्शन करके, कई-कई राज्यों में आराम से आकर रहा जा सकता है। यह जगह, भविष्य में, काफी बड़ी हो जाएगी, खूब फलने-फूलने लगेगी, इसका अंदज़ा लगाकर ही, वह रेवती को यहां ले आया था।
रेवती को वह एक बहुत बड़े ऐक्शन के बाद, यहां लाया था। डैनी (यह असली नाम नहीं था। सुविधा के लिए किसी हिंदी फ़िल्म के किसी खलनायक के नाम पर रख लिया गया था) एक राष्ट्रीय-मार्ग से जा रहा था। उन दिनों भी हीरो, आधिकारिक तौर पर डैनी का दाहिना हाथ था, लेकिन उन्हीं दिनों ही उसने दल बदल लिया। बेहद अफसोस की बात है, डैनी को इसकी जानकारी नहीं दी गई। डैनी क्या करने वाला है, हीरो जानता था, डैनी को इसकी ख़बर नहीं थी।
उन दिनों हीरो का जो कारोबार ‘फ्रंट’ में था, उसने ‘मोटेल’ नाम दिया था। ‘हीरोज़ मोटेल’’ ! नीचे गैरेज, ऊपर घर, घर से जुड़ा बाथरूम भी था, मगर वहाँ पानी नदारद ! नीचे से पानी भर कर लाना पड़ता था। बगल मे ही ‘हीरो का ढाबा’! इस सड़क पर यह मोटेल और ढाबा, काफी सर्विस देता था। बहुत ज्यादा जरूरत के अलावा, डैनी यहाँ कभी नहीं आया।
मोटेल तक पहुँचने से पहले ही, हीरो ने उसे रोक लिया। सड़क पर लकड़ी का एक कुंदा, आड़े-तिरछे पड़ा था। यह सड़क, चुराए हुए काठ लाने-ले जाने के लिए भी जानी जाती थी। हीरो उस सड़क पर हाथ उठाए खड़ा था।
झुंझलाए हुए डैनी ने गाड़ी रोकी।
हीरो आगे बढ़ आया।
‘‘तुम ?’’
‘‘सॉरी, बॉस ! आपका प्लान चौपट हो गया।’’
डैनी डैश-बोर्ड से रिवाल्वर नहीं निकल पाया। वह मुंह फेरे बैठा था।
हीरो ने उसे काफी करीब से गोली मारी। एक के बाद एक ! लगातार ! उसकी नीगाहों में डैनी का चेहरा अजनबी हो आया।
हीरो ने आवाज़ देकर कहा, ‘गाड़ी बगल में उतार दे और खाई की तरफ लुढ़का दे।’’
ऐन उसी वक्त, गाड़ी की पिछली सीट पर बैठी एक लड़की, फूट-फूट कर रो पड़ी। अगले ही पल, उसने दरवाज़ा खोलकर नीचे उतरने को कदम बढ़ाया। ‘‘रेवती ?’’
‘‘मुझे मत मारो।'
‘‘नीचे उतरो।’’
एक बैग, अपनी छाती से कसकर चिपटाए हुए, वह नीचे उतरी ! उस वक्त भी वह थर-थर कांप रही थी।
थोड़ा ठहरकर उसने कहा, ‘‘नामने बाबू का बैग है।’’
हीरो ने बैग उठा लिया।
‘‘भानू, गाड़ी लुढ़का दे ! झप् फिर खिसक लेना ! बाद में, एक बार मिल लेना।’’
अब वह रेवती से मुखातिब हुआ, ‘‘चलो, बैठो ! मोटर साइकिल पर बैठ जा।’’
‘‘’गिर जाऊंगी—’’
‘‘तुझे इस गाड़ी में भेज दूं ?’’
‘‘न्-न्-नहीं।’’
‘‘बस, आगे मत बोल ! जुबाम मत खोल।’’
जाते-जाते हीरो ने मन ही मन खुद को गाली दी। कमज़ोरी ! कमज़ोरी ! दिल का कच्चा ! औरत की जान नहीं ले सकता। उसके अंदर, जरूर कहीं कमजोरी है।
उसने सोचते-सोचते सिर हिलाया-डैनी नहीं जाता ! लेकिन हीरो को फंसाकर, खुद खिसक लिया। इसीलिए उसे जाना पड़ा।
>क्या, कहीं बेईमानी हो गई ?
उसके काम में भला बेईमानी कैसी ?
वेश्या की एक पुरुषगामिता, उसके पेशे के साथ मेल नहीं खाती। अब उन रूपकथाओं का ज़माना गुज़र गया, जब कोई औरत वेश्यावृत्ति में लाई भी गई हो, वह किसी हमदर्द पुरुष का स्थायी आश्रय पा लेती थी।
लेकिन सच में उसे स्थायी आश्रय मिलता हो या न मिलता हो, बंगला उपन्यासों में उसे ज़रूर मिल जाता था। वह जिस भी मर्द की रखैल होती थी। उसी के चरणों की दासी बनकर रह जाती थी। आजकल आश्रय का मामला सिर्फ विवाहित दंपतियों में ही सीमित रह गया है। वेश्याएँ जीविका के लिए पतितावृत्ति करती हैं। ऐसी औरतें भला दासी बनकर क्यों पड़ी रहें ?
जिसे भाड़े का टट्टू बनना पड़ा हो, वह हमेशा के लिए, विश्वसनीय कैसे बना रह सकता है ? वह खुद भी, जब, जिसे विश्वास देता है, वही शख्स उसे घातक के हाथों में सौंप देता है।
मोटेल पहुंचकर वह रेवती को ऊपर खींच ले गया। काठ की सीढ़ियों पर धप-धप आवाजें गूंज उठीं। वह उसे अंदरवाले कमरे में ले गया।
‘‘अब यहीं बंद रहो ! प्यास लगे, तो पानी पी लेना।’’
‘‘मुझे मारो मत।’’
‘‘चुप! बात मत करो ! चुप-चाप रहो।’’
वह नीचे उतर आया। आज वह मोटेल क्या बंद रखे ? न, शक पड़ जाएगा। भानु भी वापस आने वाला है ! वह ढाबे में जा बैठा !
‘‘खाएगा ?’’
‘‘ना, दूध-चाय एक गिलास !’’
दूध-चाय रखकर रवि ने कहा, ‘‘लगता है, बरखा होगी।’’
‘‘हो ही जाए ! गर्मी भी पड़ी है।’’
‘‘मटर-पनीर, तड़का और रोटी ?’’
‘‘बाद में !’’
भानू आधे घंटे बाद आया। हीरो जानता था कि वह इस लाइन में क्यों आया। लेकिन, भानू किसी शरीफ घराने का बेटा ! वह क्यों इस लाइन में आ पड़ा ? यह समय आखिर कैसा समय है ? सत्तर के दशक का यह कैसा उत्तराधिकार है ? वह किससे, क्या कहे ? इस भानु जैसे छोकरे का तो हिसाब-किताब ही और तरह का है। आजकल तो सभी कैरियर दादा हैं और राजनीति भी कैरियर ही है। असली चीज़ है—रुपया ! रुपये जहां, भानु जैसे लोग वहां।
रेडियो पर ‘छायागीत’ चल रहा था। भानु ने उसका वोल्यूम बढ़ा दिया और बैठ गया। ‘‘बरसात में हमसे मिले तुम, सजन....’ गीत।
भानू ने धीमी आवाज़ में सूचना दी, ‘‘डॉन, खल्लास हो गया।’’
‘‘गुड्डू! अब तू जा, यहाँ से वन-टू-थ्री हो जा ! चल, बाहर चल!’’
बाहर निकालकर हीरो ने उसे कुछेक नोट थमाए, ‘‘हजार है ! घर में दे देना और चुपके रहना। ख़बर न दूँ तो बाहर न निकलना ! घर में जस्ट खाना, भानू और मुहल्ला छोड़कर, निकल लेगा।’’
‘‘ख़बर ज़रूर देना, हीरो, वर्ना मर जाऊंगा’’
‘‘परिवार के साथ कितने दिन रहना मिलेगा, यह नहीं सोच सकता ?’’
‘‘सोच सकता हूँ।’’
‘‘तो जा, वही कर !’’
हीरो ने कई एक पोटियां और तड़का बांध लिया।
‘‘घर जाकर खाऊंगा।’’ उसने कहा रेवती भौहें सिकोड़े बैठी थी।
‘‘लो, खाओ ! बाथरूम जाना है, तो हो आओ।’’
‘‘मेरा क्या करोगे ?’’
‘‘कहीं जाना चाहती हो ? पहुंचा दूंगा।’’
‘‘कहा जाऊंगी ? मेरे मामा लोग जाने कभी, मुझे बेच गए थे। रहती तो थी....’’
‘‘रेड लाइट एरिया में ! चकले में।’’
‘‘एक बाबू हमें उठा लाया, बाद में बेच दिया। उसके बाद, यह बाबू....’’
‘‘कहां जा रहे थे दोनों ?’’
‘‘बताया नहीं। कहा, साथ चल ! औरत साथ हो, तो मुझे सहूलियत रहती है। कहा था, सिलिगुड़ी ले जाकर ब्याह करा देगा।’’
‘‘हां, पहले भी कराया था, बात में भी करा देता। यह डैनी लड़कियों का हमेशा ब्याह ही तो कराता था। तुमने उसका भरोसा किया था ?’’
‘‘भरोसा मैंने उसका किसी दिन भी नहीं किया। लेकिन मेरे हाथ में और कोई उपाय भी कहां था ? सत्पथ पर रहूंगी, मेहनत की खाऊंगी। बहुत दिनों से टेंट कानी थी। अब जाकर बढ़िया फल मिला !’’
‘‘तुम्हारी उम्र कितनी है ?’’
‘‘बाइस!’’
‘‘रुपए तो बैग में भर लाई हो।’’
‘‘बाबू ने ही रखने को दिया था।
‘‘कितने हैं ?’’
‘‘चार हजार और मेरे कुछ गहने।’’
‘‘देखता हूं, मेहनत का खाती हो या नहीं। डैनी के लिए दुःख हो रहा है ?’’
‘‘दुःख कैसा दुःख ? दुःख-सुख मुझे नहीं होता।’’
‘‘वाह ! बहुत खूब ! तुम्हारे बाबू के बैग में कितने हैं ?’’
‘‘देखा नहीं।’’
‘‘उसी आदमी के घर में ही तो रहती-सहती थी और कितने मज़े से कह रही हो—तुम्हें दुःख-सुख नहीं होता।’’
‘‘वह तो तुम्हारा भी बॉस था। उसे मारकर दुःख हो रहा है ?’’
‘‘उसने मुझे खत्म करने का इंतजाम किया था। अब या तो वह मरता या मैं। खैर, छोड़ो ! खाना है तो खा लो ! मैं तो खाता हूँ। मेरे पेट में चूहे कूद रहे हैं ! कसकर भूख लगी है।’’
‘‘तुम क्या इंसान हो ? खाने की क्यों सोचते हो ?’’
‘‘क्यों न सोचूँ ? खाने के लिए ही तो इतना सब कामकाज करता हूं। आज अगर मैं मर गया होता, तो डैनी बाबू खाना नहीं खाता ? तुम्हें नहीं खाना है, तो मत खाओ। आओ, सो जाओ। मैं दरवज्जे पर ताला मार दूंगा, सुबह खोल दूंगा। सुनो, खिड़की की राह भागने की कोशिश हरगिज मत करना। नीचे ही गैरेज है। वहां मेरे बंदे मौजूद हैं ! ये दोनों बैग भी मुझे पकड़ाना। मैं इन्हें ताले-चाबी में रख दूं, कल दे दूंगा। और हां, चींखना-चिल्लाना मत, यहाँ कोई सुनने वाला नहीं।’’
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